Monday 23 May 2022

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Tuesday 23 November 2021

 

कृषि क़ानून: किसान ने कई मोर्चों पर जीत दर्ज की है, लेकिन मीडिया सब पर हारा 



 प.साईनाथ


(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जो मीडिया कभी भी खुले तौर पर स्वीकार नहीं कर सकता है वह यह है कि वर्षों में जिस सबसे बड़े लोकतांत्रिक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन को दुनिया ने देखा, जो कि निश्चित तौर पर कोरोना महामारी के चरम पर होने के बावजूद भी बेहद व्यवस्थित ढंग से आयोजित किया गया था, उसने एक बहुत बड़ी जीत हासिल की है.

एक जीत जो एक विरासत को आगे बढ़ाती है. आदिवासी और दलित समुदायों समेत सभी प्रकार के पुरुष और महिला किसानों ने इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. और हमारी आजादी के 75वें वर्ष में दिल्ली की सीमाओं पर किसानों ने उस महान संघर्ष की भावना को फिर से दोहराया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि वे कृषि कानूनों से पीछे हट रहे हैं और 29 नवंबर से शुरू होने वाले संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में उन्हें वापस लेने जा रहे हैं. उनका कहना है कि वे अपने सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद भी किसानों के एक वर्ग को मनाने में विफल रहने के बाद ऐसा कर रहे हैं.

उनके शब्दों पर ध्यान दीजिए, सिर्फ एक वर्ग को वह यह स्वीकार करने के लिए नहीं मना सके कि किसानों द्वारा ठुकराए गए तीनों कृषि क़ानून वास्तव में उनके लिए अच्छे थे. इस ऐतिहासिक संघर्ष के दौरान मारे गए 600 से अधिक किसानों की जान जाने के संबंध में उन्होंने एक शब्द नहीं कहा.

उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि क़ानूनों का उजला पक्ष देखने के लिए किसानों के उस वर्ग को कुशलतापूर्वक न समझा पाना ही उनकी विफलता है. कोई भी विफलता कानूनों से जुड़ी नहीं है या उनकी सरकार ने कैसे उन क़ानूनों को ठीक महामारी के बीच ही किसानों पर थोप दिया.

खैर, जिन्होंने मोदी के आकर्षण द्वारा फुसलाए जाने से इनकार कर दिया, उन्हें खालिस्तानी, देशद्रोही, किसानों का वेष धरे फर्जी कार्यकर्ताओं को ‘किसानों के एक वर्ग’ के नाम से बुलाया जाने लगा. सवाल है कि उन्होंने इनकार क्यों कर दिया? किसानों को मनाने का तरीका क्या था?

अपनी शिकायतों को समझाने के लिए राजधानी में उन्हें प्रवेश देने से इनकार करना? रास्तों पर बड़े-बड़े गड्ढे खोदकर और कंटीले तारों से उनका मार्ग अवरुद्ध कर देना ? उन पर वॉटर कैनन का प्रहार करवाना? उनके शिविरों को छोटे गुलाग (सोवियत संघ में श्रमिकों को रखने की जेलें, जिनमें कई श्रमिक मारे गए थे) में तब्दील करना? अपने दरबारी मीडिया के जरिये हर दिन किसानों को बदनाम करवाना? उनके ऊपर गाड़ियां चढ़ाकर, जिसके मालिक कथित तौर पर एक केंद्रीय मंत्री और उनका बेटा है?

यह है इस सरकार का किसानों को मनाने का तरीका?  अगर वे सरकार के सर्वोत्तम प्रयास थे तो हम कभी भी इसके सबसे बुरे प्रयासों को नहीं देखना चाहेंगे.

अकेले इस साल ही प्रधानमंत्री ने कम से कम सात विदेश यात्राएं कीं (जैसे हाल में सीओपी26 के लिए की थी). लेकिन उनके आवास से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही दिल्ली के दरवाजे पर बैठे हजारों किसानों से मिलने के लिए जाने का समय उन्हें कभी एक बार भी नहीं मिला, जबकि उन किसानों की पीड़ा ने देश में हर जगह ढेरों लोगों ने महसूस किया.

क्या यह किसानों को समझाने-बुझाने, उनमें विश्वास जगाने और उनकी शंकाओं को दूर करने की दिशा में ईमानदार प्रयास नहीं होता?

सिंघू सीमा पर कृषि कानून वापस लिए जाने के बाद एक किसान. (फोटो: पीटीआई)

वर्तमान आंदोलन के पहले ही महीने से मैं मीडिया और अन्य लोगों के सवालों से घेर लिया गया था कि किसान संभवत: कब तक आंदोलन पर बैठे रह सकते हैं? किसानों ने उस सवाल का जवाब दे दिया है. लेकिन वे यह भी जानते हैं कि उनकी यह शानदार जीत अभी पहला कदम है.

क़ानून वापसी का मतलब है कि अभी के लिए किसानों की गर्दन पर रखा कॉरपोरेट जगत का पैर हटाना. लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद से लेकर आर्थिक नीतियों जैसे अधिक बड़े मुद्दों तक, अन्य समस्याओं का एक बेड़ा अभी भी समाधान की मांग करता है.

टेलीविजन पर एंकर हमें बताते हैं, मानो कि यह एक अद्भुत खुलासा हो, कि सरकार द्वारा कदम पीछे खींचने का जरूर कुछ संबंध अगले साल फरवरी में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों के साथ है.

यही मीडिया आपको नवंबर को घोषित 29 विधानसभा और 3 संसदीय क्षेत्र में उपचुनाव के नतीजों के महत्व के बारे में कुछ भी बताने में विफल रहा. उस समय के आसपास आए  संपादकीय पढ़िए और देखिए कि टीवी पर विश्लेषण के लिए क्या स्वीकृत किया गया.

उन्होंने आम तौर पर उपचुनाव जीतने वाले सत्तारूढ़ दलों की बात की, स्थानीय स्तर पर कुछ गुस्से की बात की (जो सिर्फ भाजपा के खिलाफ नहीं था) और भी ऐसी बकवास की. कुछ संपादकीयों में जरूर उन चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाले दो कारकों का जिक्र था, जो किसान आंदोलन और कोविड-19 कुप्रबंधन थे.

मोदी की 19 नवंबर की घोषणा दिखाती है कि उन्होंने कम से कम, और अंत में, उन दोनों कारकों के महत्व को समझदारी से समझा है. वे जानते हैं कि जिन राज्यों में किसान आंदोलन उग्र है, वहां कुछ बड़ी हार मिली हैं. लेकिन मीडिया अपने दर्शकों को रटा रहा है कि आंदोलन का असर सिर्फ पंजाब और हरियाणा में था, राजस्थान और हिमाचल जैसे राज्य उनके विश्लेषण का हिस्सा नहीं बन सके.

हमने आखिरी बार कब राजस्थान के दो निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा या संघ परिवार की किसी इकाई/संगठन को तीसरे और चौथे स्थान पर आते देखा था? या फिर हिमाचल में मिली भारी हार को ही लें जहां वे तीनों विधानसभा और एक संसदीय सीट हार गए?

हरियाणा में आंदोलनकारी किसानों ने आरोप लगाया कि ‘सीएम से लेकर डीएम तक पूरी सरकार’ भाजपा के लिए प्रचार कर रही थी. यहां कांग्रेस ने मूर्खता दिखाते हुए किसानों के मुद्दे पर इस्तीफा देने वाले अभय चौटाला के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा कर दिया. साथ ही, केंद्रीय मंत्रियों ने पूरी ताकत के साथ मोर्चा संभाला हुआ था. इस सबके बावजूद भी भाजपा वहां हार गई.

कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो गई लेकिन वह चौटाला की जीत के अंतर को कुछ कम करने में सफल रहा. फिर भी चौटाला 6,000 से अधिक मतों से जीते.

तीनों राज्यों ने किसान आंदोलन का प्रभाव महसूस किया और कॉरपोरेट जगत के गिद्धों के विपरीत प्रधानमंत्री ने उस प्रभाव को समझा. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उन विरोध प्रदर्शन के प्रभाव से उन्हें ऐसा बोध हुआ, जिनमें लखीमपुर खीरी में भयावह हत्याओं से हुआ आत्मघाती नुकसान भी शामिल था और अब से शायद 90 दिनों में उस राज्य में चुनाव भी आने वाले हैं.

2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का क्या हुआ? एनएसएस (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 2018-19) का 77वां दौर किसानों के लिए फसल की खेती से होने वाली आय के हिस्से में गिरावट दर्शाता है – कुल मिलाकर किसान की आय को दोगुना करना भूल जाइए. यह खेती-किसानी से हुई वास्तविक आय में भी शुद्ध गिरावट दिखाता है.

किसानों ने वास्तव में कानूनों को वापस लेने की उस दृढ़ मांग को हासिल करने से भी कहीं अधिक बड़ा काम किया है. उनके संघर्ष ने इस देश की राजनीति को गहराई तक प्रभावित किया है. जैसा कि 2004 में हुआ.

यह कृषि संबंधी संकट का अंत बिल्कुल नहीं है. यह तो उस संकट संबंधी बड़े मुद्दों पर लड़ाई के एक नए चरण की शुरुआत है.

किसान आंदोलन अब लंबे समय से चल रहा है. और विशेष रूप से 2018 से मजबूती से उभरा है, जब महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों ने नासिक से मुंबई तक अपने 182 किलोमीटर के विस्मितकर देने वाले पैदल मार्च से देश को उत्तेजित कर दिया था. फिर भी यह उन्हें ‘अर्बन नक्सल’ के रूप में खारिज किए जाने और बाकी सब अनर्गल विलाप के साथ शुरू हुआ. उन्हें असली किसान नहीं माना गया. उनके मार्च ने उनकी निंदा करने वालों को हरा दिया.

आज यहां कई जीत मिली हैं. जिनमें वह जीत बिल्कुल शामिल नहीं है जो कॉरपोरेट मीडिया पर किसानों ने दर्ज की है. खेती के मुद्दे पर (जैसा कि कई अन्य मुद्दों पर), उस मीडिया ने अतिरिक्त शक्ति वाली एएए बैटरी (एम्पलीफाइंग अंबानी अडाणी +) के रूप में काम किया.

दिसंबर और अगले अप्रैल के बीच हम राजा राममोहन रॉय द्वारा शुरू की गई दो महान पत्रिकाओं के 200 साल पूरे करेंगे. दोनों पत्रिकाओं को सही अर्थों में भारतीय प्रेस की शुरुआत कहा जा सकता है. इनमें से एक मिरात-उल-अखबार था, जिसने कोमिला (अब चटगांव, बांग्लादेश में) में एक न्यायाधीश द्वारा दिए गए आदेश पर कोड़े मारकर की गई प्रताप नारायण दास की हत्या पर अंग्रेजी प्रशासन को बेहतरीन तरीके से  बेनकाब किया था. रॉय के प्रभावशाली संपादकीय का नतीजा यह हुआ कि न्यायाधीश को उत्तरदायी ठहराया गया और तबके सबसे बड़े न्यायालय में उन पर मुकदमा चलाया गया.

गवर्नर जनरल ने प्रेस को आतंकित करके इस पर प्रतिक्रिया दी. एक कठोर नए प्रेस अध्यादेश को लागू करके उन्होंने रॉय को झुकाने की कोशिश की. इसे मानने से इनकार करते हुए रॉय ने घोषणा की कि वे नीचा दिखाने वाले और अपमानजनक क़ानूनों और परिस्थितियों के सामने समर्पण करने के बजाय मिरात-उल-अख़बार को बंद कर रहे हैं. (और अन्य पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने चल दिए.)

वह साहस की पत्रकारिता थी, न कि दोस्ताना साहस और आत्मसमर्पण वाली वह पत्रकारिता जो हम कृषि मसले पर देख चुके हैं. बेनाम या बिना दस्तखत के संपादकीय में किसानों के लिए ‘चिंता’ का दिखावा किया गया, जबकि अन्य पन्नों पर उन्हें अमीर किसान बताकर उनकी आलोचना की गई कि वे अमीरों के लिए समाजवाद की मांग कर रहे हैं.

द इंडियन एक्सप्रेस, द टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबारों का लगभग पूरा वर्ग अनिवार्य तौर पर कहता था कि ये गांव के देहाती लोग थे जिनसे केवल प्यार से बात किए जाने की जरूरत थी. ये संपादकीय इस कदर समान थे कि हमेशा बिना किसी भिन्नता के एक ही अपील समाप्त हुए-  कि सरकार इन कानूनों को वापस न ले, वे वास्तव में अच्छे हैं. ये हालात ज्यादातर बाकी मीडिया प्रकाशनों का भी रहा.

क्या इनमें से किसी प्रकाशन ने किसानों और कॉरपोरेट्स के बीच जारी गतिरोध के बीच एक बार भी अपने पाठकों को बताया था कि मुकेश अंबानी की 84.5 बिलियन डॉलर (फोर्ब्स 2021) की व्यक्तिगत संपत्ति तेजी से पंजाब राज्य के जीएसडीपी (लगभग 85.5 बिलियन डॉलर) के करीब आ चुकी है? क्या उन्होंने एक बार भी आपको बताया कि अंबानी और अडाणी (50.5 बिलियन डॉलर) दोनों की कुल संपत्ति मिलाकर पंजाब या हरियाणा के जीएसडीपी से अधिक थी?

पर विकत स्थितियां हैं. अंबानी भारत में मीडिया के सबसे बड़े मालिक हैं. और उन मीडिया में जिनके वे मालिक नहीं हैं, वहां वे संभवत: सबसे बड़े विज्ञापनदाता हैं. इन दो उद्योगपतियों की संपत्ति के बारे में सामान्य तौर पर अक्सर जश्न मनाने वाले अंदाज में लिखा जाता है. यह कॉर्पो-क्रॉल (corpo-crawl) यानी कॉरपोरेट के सामने झुकने वाली पत्रकारिता है.

पहले से ही चर्चाएं हैं कि मोदी सरकार की कृषि कानूनों पर कदम पीछे खींचने की यह धूर्ततापूर्ण रणनीति कैसे पंजाब विधानसभा चुनावों में महत्वपूर्ण प्रभाव डालेगी. अमरिंदर सिंह ने इसे कांग्रेस से इस्तीफा देकर और मोदी के साथ समझौता करके बनाई गई योजना के तहत मिली जीत के रूप में पेश किया है. यह वहां चुनावी तस्वीर को बदल देगा.

लेकिन उस राज्य के सैकड़ों-हजारों लोग, जिन्होंने उस संघर्ष में भाग लिया है, जानते हैं कि यह किसकी जीत है. पंजाब के लोगों के दिल उन लोगों के साथ हैं जिन्होंने आंदोलन शिविरों में दशकों बाद दिल्ली में पड़ी सबसे खराब सर्दियों में से एक को सहा है, भीषण गर्मी और उसके बाद बारिश को झेला है, और मोदी व उनकी गुलाम मीडिया के घिनौने बर्ताव का सामना किया है.

और शायद सबसे अहम चीज जो आंदोलनकारियों ने हासिल की है वह यह है, अन्य क्षेत्रों में भी प्रतिरोध की आवाजों को प्रेरित करना, एक ऐसी सरकार के खिलाफ जो अपने आलोचकों को जेल में डाल देती है या उनको प्रताड़ित करती है. जो गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत पत्रकारों समेत आम नागरिकों को खुलेआम गिरफ्तार करती है और ‘आर्थिक अपराधों’ के लिए स्वतंत्र मीडिया की आवाज को कुचलती है.

यह सिर्फ किसानों की जीत नहीं है. यह नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की लड़ाई की जीत है. भारतीय लोकतंत्र की जीत है.

(पी. साईनाथ  ‘पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया’ नाम की वेबसाइट के संस्थापक संपादक हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

Sunday 31 October 2021

पेगासस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय देश के लोकतंत्र को फिर मज़बूत करने का माद्दा रखता है

 

पेगासस जासूसी का मामला एक तरह से मीडिया, सिविल सोसाइटी, न्यायपालिका, विपक्ष और चुनाव आयोग जैसे लोकतांत्रिक संस्थानों पर आख़िरी हमले सरीख़ा था. ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फ़ैसले ने कइयों को राहत पहुंचाई, जो हाल के वर्षों में एक अनदेखी बात हो चुकी है.

पेगासस विवाद एक ऐसे समय में सामने आया जब अभिव्यक्ति की आजादी को लेकेर चिंताएं गहरा रही थीं: चाहे सामाजिक कार्यर्ताओं और मीडियाकर्मियों पर लगाए गए अनेक राजद्रोह और आपराधिक मामले हों, लोकतांत्रिक विरोध का गला घोंटने की कोशिशें हों या ऑनलाइन न्यूज मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के इरादे से इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी कानून में पिछले दरवाजे से किया गया दमनकारी संशोधन.
पेगासस जासूसी का मामला एक तरह से मीडिया, सिविल सोसाइटी, न्यायपालिका, विपक्ष और चुनाव आयोग जैसे लोकतांत्रिक संस्थानों पर आखिरी हमले सरीखा था. ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले ने कइयों को राहत पहुंचाई, जो हाल के वर्षों में एक अनदेखी बात हो गई है.
कुछ वरिष्ठ वकीलों ने कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए इसे ‘ऐतिहासिक’ और ‘वॉटरशेड ’ जैसे विशेषणों से नवाजा. इसे प्रथमदृष्टया मोदी सरकार पर आरोपपत्र की स्वीकृति के तौर पर देखा गया. आम नागरिकों के लिए भी यह कोई कम राहत की बात नहीं थी.


Thursday 28 October 2021

पेगासस जाँच: समिति के सामने होगी ढेरों चुनौतियाँ!

 राजेश बादल

सर्वोच्च न्यायालय ने पेगासस मामले में विशेषज्ञ समिति का गठन कर यक़ीनन लोगों का भरोसा जीता है। कुछ समय पहले तक इस संस्था की गरिमा पर सवाल उठ रहे थे। लेकिन हालिया दिनों में एक बार फिर अवाम की आस बंधी है। आठ सप्ताह का समय बहुत लंबा नहीं है और यह देश चाहता है कि वास्तव में उसकी निजता का उल्लंघन करने वाले इस ख़तरनाक तंत्र की असल कहानी सामने आए। हालाँकि यह काम उतना सरल नहीं है, जितना माना जा रहा है।

अगर कोई सरकार नहीं चाहती कि उसका कोई ख़ास कृत्य मुल्क के सामने उजागर हो तो किसी भी लोकतांत्रिक संस्था के लिए सच्चाई का पता लगाना नामुमकिन नहीं पर कठिन अवश्य हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के पास कोई दैवीय चमत्कारिक अधिकार तथा शक्तियाँ नहीं हैं। उसे मामले की तह तक जाने के लिए सरकार के मातहत मंत्रालयों और नौकरशाही पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। 

समिति के सामने प्रश्न यह नहीं है कि भारत में इस सॉफ्टवेयर का उपयोग हुआ था या नहीं। उसका इस्तेमाल तो हुआ ही है। पता यह लगाना है कि केंद्र या किसी राज्य सरकार ने उसे खरीदा था या नहीं। इजरायली कंपनी कहती है कि वह सॉफ्टवेयर सिर्फ़ सरकारों को उनके राष्ट्रीय हितों की हिफाज़त के लिए देती है। इसके आगे केंद्र सरकार का बयान समझने के लिए काफ़ी है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र सब कुछ नहीं बता सकती। यानी वह इस जासूसी उपकरण की इस मुल्क में उपस्थिति से इनकार नहीं कर रही है। तो समझदार लोगों के लिए इशारा बहुत है। कुछ ऐसा है जिसका खुलासा सरकार नहीं करना चाहती। 

अब अदालती समिति को इजरायली कंपनी से वह रसीद चाहिए जो उसने हिंदुस्तान की किसी सरकार को दी होगी। क्या इजरायल से हमारा कोई अनुबंध है, जिसके तहत वहाँ की सरकार भारत के सुप्रीम कोर्ट वह रसीद मुहैया कराए। ज़ाहिर है इजरायल से ऐसी कोई जानकारी ले पाना टेढ़ी खीर है। ऐसे में कोई न्यायालय परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर क्या निष्कर्ष निकाल सकता है?

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा निजता के अधिकार का है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत भारतीय नागरिकों की व्यक्तिगत ज़िंदगी को संरक्षण मिला हुआ है। क्या इस मामले में यह दीवार दरकी है?

 भारतीय दंड विधान में किसी राष्ट्रद्रोही या आतंकवादी को निजता के इस अधिकार का संरक्षण पाने का हक़ नहीं है क्योंकि वह इस अधिकार को पहले ही तोड़ मरोड़ चुका है। उसने इसका इस्तेमाल भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़िलाफ़ किया है। इसलिए कोई भी भारतीय इस मामले में सरकार का ही साथ देगा। चाहे सरकार ने पेगासस का इस्तेमाल ही क्यों न किया हो। लेकिन यदि सरकार ने इस जासूसी उपकरण का दुरुपयोग सियासी मक़सद से किया हो; राजनीतिक विरोधियों की सूचनाएँ एकत्रित करने में किया हो; अपने दल की असहमत धारा की गुप्त गतिविधियाँ पता लगाने में किया हो; राजनेताओं ने अपने आर्थिक हित साधने के लिए किया हो; पत्रकारों और संपादकों पर आलोचना नहीं करने में दबाव डालने के लिए किया हो अथवा दलबदल के लिए प्रतिपक्षी नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने में किया हो तो यह राष्ट्र किसी भी सरकार को माफ़ नहीं करेगा। चाहे वह किसी भी दल की क्यों न हो।

समिति की चुनौतियाँ

इन दोनों उद्देश्यों के अलावा सुप्रीम कोर्ट की इस समिति के सामने कुछ अन्य चुनौतियाँ भी हो सकती हैं। ये चुनौतियाँ समंदर पार जाकर जांच करने से जुड़ी भी हो सकती हैं। क्या भारत सरकार इतनी उदार होगी कि अपने ख़िलाफ़ ही जांच के लिए शिखर समिति को सर्वाधिकार संपन्न बना कर सहयोग करे। इसमें संशय है। मेरा मानना है कि आठ सप्ताह बाद भी कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाएँगे। सच जानने की अवाम की मंशा दम तोड़ देगी। महात्मा गांधी ने सात मई, 1944 को यंग इंडिया में लिखा था,

‘मनुष्य की बनाई किसी संस्था में ख़तरा न हो- यह संभव नहीं। संस्था जितनी बड़ी होगी, उसका दुरुपयोग भी उतना ही बड़ा होगा। लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है। उसका दुरुपयोग हो सकता है। लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं बल्कि दुरुपयोग की आशंका को कम से कम करना है।'

इसी बात को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कुछ इस तरह प्रकट किया है,

"संविधान चाहे जितना अच्छा हो यदि उसका क्रियान्वयन करने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे तो वह श्रेष्ठतम संविधान भी किसी काम का नहीं है।” 

क्या सर्वोच्च न्यायालय इस दिशा में कुछ ठोस काम कर सकेगा?

Wednesday 27 October 2021

जार्ज आर्वेल को पता था

 


जार्ज आर्वेल ने 1948 में एक किताब लिखी जिसका शीर्षक था- 1984. इसमें समय से आगे एक समय की कल्पना की गई है, जिसमें राज सत्ता अपने नागरिकों पर नज़र रखती है और उन्हें बुनियादी आज़ादी देने के पक्ष में भी नहीं है.

राजनीति और साहित्य के बीच रिश्ते को लेकर साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों में एक असहजता का भाव हमेशा मौजूद रहा है. ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि साहित्य की रचना का आधार वही समाज है जिस समाज का एक अनिवार्य हिस्सा राजनीति भी है. इस नाते साहित्य और राजनीति का एक-दूसरे से अछूता रहना तो कतई संभव नहीं दिखता.

सोवियत रूस और दुनिया भर में उपनिवेशवाद के खिलाफ चले आंदोलनों के दौर में इस दूरी को पाटने की भरसक कोशिश की गई थी. इसका असर ना सिर्फ सोवियत रूस में बल्कि दुनिया के तमाम भाषाओं के रचना संसार पर भी दिखा. यही वजह थी कि उस दौर में हमें राजनीति को केंद्र पर रखकर रची गई कई कालजयी साहित्यिक रचनाएं मिलीं.

इसी दौर में ब्रितानी लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने एनिमल फार्म और 1984 जैसे बेहद महत्वपूर्ण राजनीतिक उपन्यास लिखे. वो राजनीति को केंद्र में रखकर साहित्य रचने वाले दुनिया के कुछ गिने-चुने लेखकों में से एक थे. वो पॉलिटिकल नॉवेल लिखकर भी बेहद लोकप्रिय हुए.

टाइम मैगजीन ने साल 2014 में 1945 के बाद के 50 सबसे महत्वपूर्ण ब्रितानी लेखकों की सूची तैयार की थी जिसमें जॉर्ज ऑरवेल को दूसरे स्थान पर रखा गया था. इस सूची में ‘ए गर्ल इन द विंटर’ के लेखक फिलिप लैरकीन को पहले और भारतीय मूल के लेखक वीएस नायपॉल को सातवें स्थान पर रखा गया था.

लेखक बनने से पहले जॉर्ज ऑरवेल ने ब्रितानी सरकार के लिए बर्मा में पुलिसकर्मी का भी काम किया था. उसी वक्त के अनुभव को उन्होंने अपनी किताब ‘बर्मीज डेज’ में लिखा है. स्पेन के गृहयुद्ध में भी वो लड़े थे. इस गृहयुद्ध से मिले अनुभवों को उन्होंने ‘होमेज टू कैटेलोनिया’ में पिरोया है. उन्होंने अपने जीवन काल में पत्रकारिता भी की थी. जॉर्ज ऑरवेल का असल नाम एरिक ऑर्थर ब्लेयर था लेकिन जब उन्होंने लिखना शुरू किया तब जॉर्ज ऑरवेल नाम का इस्तेमाल उन्होंने खुद के लिए करना शुरू किया.

जॉर्ज ऑरवेल ब्रितानी लेखक थे लेकिन उनका जन्म भारत में 25 जून 1903 में हुआ था. ब्रितानी पत्रकार इयान जैक ने 1983 में पहली बार जॉर्ज ऑरवेल के जन्म स्थान का पता लगाया था जो कि बिहार के पूर्वी चंपारण के मोतिहारी शहर में है.

जॉर्ज ऑरवेल जब सिर्फ एक साल के थे तो यहां से अपनी मां के साथ ब्रिटेन चले गए थे. उनके पिता मोतिहारी के अफीम महकमे में एक अंग्रेज अफसर थे. पिछले कुछ सालों में भारतीय मीडिया में इसे लेकर कई खबरें भी छपी हैं कि कैसे मोतिहारी शहर अंग्रेजी साहित्य के इतने बड़े साहित्यकार का जन्म स्थान वहां होने की बात से अंजान है.

कुछ साल पहले बिहार की नीतीश सरकार ने उपेक्षित पड़े उनके टूटे घर को म्यूजियम बनाने का ऐलान भी किया था. पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर विश्वजीत मुखर्जी ने मोतिहारी और जॉर्ज ऑरवेल के ऊपर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई है.

उनका कहना है कि जॉर्ज ऑरवेल के बारे में पहले तो मोतिहारी के लोगों को पता ही नहीं था. अब धीरे-धीरे लोग जानने लगे हैं. लेकिन अब दूसरी समस्या खड़ी हो गई है लोग जॉर्ज ऑरवेल को एक महान लेखक की बजाए सिर्फ एक अंग्रेज के तौर पर देखने लगे हैं.

विश्वजीत मुखर्जी बताते हैं कि स्थानीय लोग चूंकि चंपारण की धरती को महात्मा गांधी के सत्याग्रह की धरती के तौर पर देखते हैं इसलिए उन्हें एक अंग्रेज के नाम पर मोतिहारी का सम्मान होना नागवार गुजर रहा है.

लगता है कहीं न कहीं अब राष्ट्रवाद की नई परिभाषा में जॉर्ज ऑरवेल भी निशाने पर आ गए हैं. इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि उन्हें महात्मा गांधी के मुकाबले खड़ा कर दिया गया है जबकि इतिहास में इन दोनों ही शख्सियतों की सबसे बड़ी विशेषता ही यही रही थी कि ये दोनों ही किसी भी तरह के अधिनायकवाद और हर कीमत पर उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले योद्धा थे.

विडंबना देखिए कि यह काम वहां किया जा रहा है जो महात्मा गांधी की कर्मभूमि रही है तो जॉर्ज ऑरवेल की जन्मभूमि.

कहीं, यही वजह तो नहीं इसकी, कि मोतिहारी स्थित ‘ऑरवेल हाउस’ को म्यूजियम बनाने की नीतीश सरकार की घोषणा सिर्फ घोषणा ही बन कर रह गई है अब तक.

वहीं पिछले साल जब चंपारण सत्याग्रह के सौवां साल मनाया जा रहा था तब ठीक ‘ऑरवेल हाउस’ के बगल में ही एक भव्य सत्याग्रह शताब्दी पार्क का निर्माण किया गया है.

लीसेस्टर के डी मोंटफोर्ट यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर पीटर डेविसन ने जॉर्ज ऑरवेल की जिंदगी और उनके रचना संसार को काफी करीब से देखा है. उन्होंने ‘जॉर्ज ऑरवेल: ए लाइफ इन लेटर्स एंड डायरीज’ नाम से एक किताब का संपादन किया है. इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल के लिखे खत और डायरी नोट्स के जरिए उनकी जिंदगी में झांकने की कोशिश की गई है.

इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल के द टाइम के संपादक को लिखे एक खत का जिक्र किया गया है. इस खत में ऑरवेल ने ब्रिटिश सरकार को बदले की भावना से जर्मन कैदियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार के लिए लताड़ते हुए लिखा है, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर कोई पिछले दस सालों के इतिहास पर नजर डालेगा तो उसे लोकतंत्र और फासीवाद में एक गहरा नैतिक फर्क दिखेगा. लेकिन अगर हम आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत के सिद्धांत पर चलते हैं तो इस फर्क को भूला दिया जाएगा.’

इस खत को द टाइम के संपादक ने नहीं छापा था लेकिन ऑरवेल के ये विचार महात्मा गांधी के उन विचारों के करीब दिखता है जब वो कहते हैं कि आंख के बदले आंख की भावना एक दिन सारे संसार को अंधा बना देगी.

लेकिन गांधी और ऑरवेल के विचारों में साम्य होने से कथित राष्ट्रवादियों का क्या लेना-देना. उन्हें तो शायद वही दुनिया रास आती है जहां बदले की भावना ही राजधर्म हो.

इसी किताब में इस बात का भी जिक्र है कि जॉर्ज ऑरवेल को अपने कालजयी उपन्यास एनिमल फार्म को छपवाने में कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी. यह किताब 1945 में आई थी. इस किताब में उन्होंने स्टालिनवाद पर तंज कसा है. इस किताब में उन्होंने सुअरों के राज वाले एक देश की बात की है. ये सुअर इंसानों से नफरत करते हैं. बाद में सुअर और इंसान दोनों को एक होते हुए दिखाया गया है.

इस उपन्यास का अंत उन्होंने कुछ यूं किया है, ‘कई आवाजें गुस्से में चिल्ला रही थीं और सभी आवाजें एक सी लग रही थीं. कोई सवाल नहीं कर रहा था कि सूअरों के चेहरों को अब क्या हो गया था. फार्म हाउस के बाहर खड़े प्राणी कभी सूअर को देखते, कभी इंसानों को, फिर इंसानों से लगने वाले सूअर को, लेकिन अब यह कहना असंभव हो चुका था कि कौन सा चेहरा किसका है.’

जॉर्ज ऑरवेल अपने दौर के उन चुनिंदा लोगों में से थे जो फासीवाद, नाजीवाद और स्टालिनवाद की समान रूप से आलोचना करते थे और दोनों को ही मानवता का संकट मानते थे. वो किसी भी तरह के अधिनायकत्व के खिलाफ थे.

उनकी दूसरी महत्वपूर्ण किताब 1984 है. यह किताब उन्होंने लिखी थी 1948 में लेकिन इसका शीर्षक उन्होंने रखा था-1984. क्योंकि वो इसमें अपने समय से आगे जाकर एक समय की कल्पना करते हैं जिसमें राज सत्ता अपने नागरिकों पर नजर रखती है और उन्हें बुनियादी आजादी देने के पक्ष में भी नहीं है.

वो सत्ता के खिलाफ सवाल उठाने वाली आवाज को हमेशा के लिए खामोश कर देना चाहता है. वो विद्रोहियों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है. वो इस किताब में तकनीक से घिरे उस दुनिया की बात करते हैं जहां आदमी के निजता के कोई मायने नहीं है.

जहां निजता मानवाधिकार ना रहकर सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगों का ही विशेषाधिकार हो चुका है. ऑरवेल अपनी इस किताब में ‘बिग ब्रदर इज वाचिंग यू’ जैसी अवधारणाओं की बात करते हैं जो आज वाकई में तकनीक और गैजेट से घिरी हुई इस दुनिया में अस्तित्व में है.

इस किताब में जॉर्ज ऑरवेल की कल्पना शक्ति अद्भुत है. ऐसा लगता है कि कोई 1948 में बैठकर इस वक्त की भविष्यवाणी लिख गया हो. 21 जनवरी 1950 को अपनी मृत्यु से पहले सिर्फ 47 साल की जिंदगी में जॉर्ज ऑरवेल ने अपने वक्त के साथ-साथ अपने आगे के वक्त को भी बखूबी देख लिया था. इसलिए वो इस दौर में और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं. समाज और व्यवस्था पर दूरदर्शी नजर रखने वाला साहित्यकार शायद इसे ही कहते हैं.

Friday 15 October 2021

फेसबुक-फेकबुक

फेसबुक ने अपनी पॉलिसी अपडेट करते हुए आगाह किया है कि अब पत्रकारों, नेताओं और सेलिब्रिटी का मजाक उड़ाना यूजर को भारी पड़ सकता है। सेक्शुअल कंटेंट पोस्ट करने पर अकाउंट बैन हो जाएगा। लगता है, गोदी मीडिया वाले दलालों के लिए 'फेकबुक' और ज्यादा नंगा हो रहा है।

Tuesday 6 April 2021

वोटर हो क्या, बस वोट दे दो, बाकी जाओ चूल्हेभाड़ में

 दादा हों या दीदी.......अंबेडकर, जिन्ना, गोलवलकर के जमाने से मतदाताओं से क्यों बार-बार एक ही तरह के सवाल कि, दलित हो क्या? मुसलिम हो क्या? हिंदू हो क्या? ....तो, इधर आओ, इधर आओ, इधर आओ। आज भी कोई मतदाता से नहीं पूछ रहा कि बेरोजगार हो क्या? भूमिहीन हो क्या? गरीब हो क्या? बीमार हो क्या? अशिक्षित हो क्या?........ लोकतंत्र के ढकोसलेबाज!!!

सुबह सुबह का फ़र्क

  खाए-अघाए लोगों की सुबह- मोटिवेशन क चरा बीनते बच्चों की सुबह- दाना-पानी